Wednesday, August 21, 2019

kamlesh


Monday, August 12, 2019

पास रक्खेगी नहीं

पास रक्खेगी नहीं सब कुछ लुटायेगी नदी
शंख शीपी रेत पानी जो भी लाएगी नदी

आज है कल को कहीं यदि सूख जाएगी नदी
होठ छूने को किसी का छटपटाएगी नदी

बैठना फुरसत से दो पल पास जाकर तुम कभी
देखना अपनी कहानी खुद सुनाएगी नदी

साथ है कुछ दूर तक ही फिर सभी को छोड़कर
खुद समन्दर में किसी दिन डूब जाएगी नदी

हमने वर्षों विष पिलाकर आजमाया है जिसे
अब हमें भी विष पिलाकर आजमाएगी नदी


–कमलेश भट्ट कमल

Sunday, October 09, 2011

पिंजरें में कैद पंछी

पिंजरें में कैद पंछी कितनी उड़ान लाते
अपने परों में कैसे वो आसमान लाते।

कागज पे लिखने भर से खुशहालियाँ जो आतीं
अपनी गजल में हम भी हँसता सिवान लाते।

हथियार की जरूरत बिल्कुल नहीं थी भाई
मज़हब की बात करते, गीता कुरान लाते।

तन्हा ज़बान की तो लत झूठ की लगी थी
फिर रहनुमा कहाँ से सच की ज़बान लाते।

पहले ही सुन चुके हैं आँसू के खूब किस्से
अब तो कहीं से खुशियों की दास्तान लाते।


-कमलेश भट्ट कमल

औरत है एक कतरा

औरत है एक कतरा, औरत ही खुद नदी है
देखो तो जिस्म, सोचो तो कायनात-सी है।

संगम दिखाई देता है उसमें गम़-खुशी का
आँखों में है समन्दर, होठों पे इक हँसी है।

ताकत वो बख्श़ती है ताकत को तोड़ सकती
सीता है इस ज़मीं की, जन्नत की उर्वशी है।

आदम की एक पीढ़ी फिर खाक हो गई है
दुनिया में जब भी कोई औरत कहीं जली है।

मर्दों के हाथ औरत बाजार हो रही है
औरत का गम नहीं ये मर्दों की त्रासदी है।

-कमलेश भट्ट कमल

देह के रहते ज़माने की

देह के रहते ज़माने की कई बीमारियाँ भी हैं
आदमी होने की लेकिन हममें कुछ खुद्दारियाँ भी हैं।

कोई भी खुद्दार अपनी रूह का सौदा नहीं करता
और करता है तो इसमें उसकी कुछ लाचारियाँ भी हैं।

चाहतें जीने की छोड़ी जायेंगी हरगिज नहीं हमसे
जिन्दगी में यूँ कि ढेरों ढेर-सी दुश्वारियाँ भी हैं।

इस शहर से जिन्दगी को छीन सकता है नहीं कोई
मौत है इसमें अगर तो जन्म की तैयारियाँ भी हैं।

कोई झोंका फिर अलावों में तपिश भर जाएगा भाई
राख तो है राख के भीतर मगर चिन्गारियाँ भी हैं।

-कमलेश भट्ट कमल

Friday, July 22, 2011

मन नहीं बदले अगर

मन नहीं बदले अगर तो सिर्फ तन से क्या ?
आये दिन के कीर्तन से या भजन से क्या ?

जो उजाला या तपिश कुछ भी न दे जाए
वह जले या बुझ भी जाए, उस अगन से क्या ?

बन्दिशें ही बन्दिशें जब हों उड़ानों पर
पंछियों को फिर परों से या गगन से क्या ?

आपके घर में हवा है और ताज़ा है
आपको माहौल की गहरी घुटन से क्या ?

ज़हनियत का भी पता देते हैं खुद कपड़े
ज़हनियत मर जाए तो फिर तन-बदन से क्या ?

जब गरीबों का कहीं कोई न अपना हो
मुल्क की सारी व्यवस्था से सदन से क्या ?

जो अँधेरों की तरफदारी में शामिल हो
वह किरन भी हो अगर तो उस किरन से क्या ?

-कमलेश भट्ट कमल

Monday, March 02, 2009

कमलेश भट्ट का रचना संसार



-- सुप्रसिद्ध चित्रकार डा० लाल रत्नाकर की दृष्टि से कमलेश भट्ट का रचना संसार --

Monday, February 16, 2009

मन स्वयं को दूसरों पर होम कर दे



मन स्वयं को दूसरों पर होम कर दे
माँ हमारी भावना तू व्योम कर दे !

ज्योति है तू ज्योत्सना का वास तुझमें
फिर अमावस से विलग तम तोम कर दे !

कुछ नहीं, कुछ भी नहीं तुझसे असम्भव
तू अगर चाहे गरल को सोम कर दे !

तू सनातन स्नेहमयि माँ, चिर तृषित हम
नेहपूरित देह का हर रोम कर दे !

धन्य हो जाए सृजन की पूत वीणा
माँ कृपा कर तू स्वरों को ओम कर दे !


- कमलेश भट्ट कमल
(सद्य प्रकाशित गजल संग्रह मैं नदी की सोचता हूँ से )

Monday, October 02, 2006

भले ही मुल्क के (ग़ज़ल)

भले ही मुल्क के हालात में तब्दीलियाँ कम हों
किसी सूरत गरीबों की मगर अब सिसकियाँ कम हों।

तरक्की ठीक है इसका ये मतलब तो नहीं लेकिन
धुआँ हो, चिमनियाँ हों, फूल कम हों, तितलियाँ कम हों।

फिसलते ही फिसलते आ गए नाज़ुक मुहाने तक
जरूरी है कि अब आगे से हमसे गल्तियाँ कम हों।

यही जो बेटियाँ हैं ये ही आखिर कल की माँए हैं
मिलें मुश्किल से कल माँए न इतनी बेटियाँ कम हों।

दिलों को भी तो अपना काम करने का मिले मौका
दिमागों ने जो पैदा की है शायद दूरियाँ कम हों।

अगर सचमुच तू दाता है कभी ऐसा भी कर ईश्वर
तेरी खैरात ज्यादा हो हमारी झोलियाँ कम हों।


-कमलेश भट्ट कमल

Tuesday, September 05, 2006

कुछ विशेष क्षण


बेशक छोटे हों लेकिन (ग़ज़ल)

बेशक छोटे हों लेकिन धरती का हिस्सा हम भी हैं
जैसे प्रभु की सारी रचना, वैसी रचना हम भी हैं।

इतना भी आसान नहीं है पढ़ना और समझ पाना
सुख की दुख की संघर्षों की पूरी गाथा हम भी हैं।

आज नहीं हो कल तुमको भी साथ हमारे चलना है
एक ज़माना तुम भी थे तो एक ज़माना हम भी हैं।

फ़न ने ही हमको दी है मर्यादा जीने मरने की
तो फिर फन के जीने मरने की मर्यादा हम भी हैं।

ईश्वर ने तो लिख रक्खा है सबके माथे पर लेकिन
अपने सुख के अपने दुख के एक विधाता हम भी हैं।

जब जब भी इच्छा होती है रास रचा लेते हैं हम
अपने मन के वृंदावन के छोटे कान्हा हम भी हैं।

-कमलेश भट्ट कमल

सफलता पाँव चूमे

ग़ज़ल

सफलता पाँव चूमे गम का कोई भी न पल आए
दुआ है हर किसी की जिन्दगी में ऐसा कल आए।

ये डर पतझड़ में था अब पेड़ सूने ही न रह जाएँ
मगर कुछ रोज़ में ही फिर नए पत्ते निकल आए।

हमारे आपके खुद चाहने भर से ही क्या होगा
घटाएँ भी अगर चाहें तभी अच्छी फसल आए।

हमें बारिश ने मौका दे दिया असली परखने का
जो कच्चे रंग वाले थे वो अपने रंग बदल आए।

जहाँ जिस द्वार पर देखेंगे दाना आ ही जाएँगे
परिन्दों को भी क्या मतलब कुटी आए महल आए।

हमारा क्या हम अपनी दुश्मनी भी भूल जाएँगे
मगर उस ओर से भी दोस्ती की कुछ पहल आए।

अभी तो ताल सूखा है अभी उसमें दरारें हैं
पता क्या अगली बरसातों में उसमें भी कमल आए।

-‍‍कमलेश भट्ट कमल

Sunday, July 30, 2006

उस पर जाने किस किसका



उस पर जाने किस किसका तो बंधन होता है
अपना मन भी आखिर कब अपना मन होता है ।

तन से मन की सीमा का अनुमान नहीं लगता
तन के भीतर ही मीलों लम्बा मन होता है ।

वह भी क्या जानेगा सागर की गहराई को
जिसका उथले तट पर ही देशाटन होता है ।

अँधियारा क्या घात लगाएगा उस देहरी पर
जिस घर रोज उजालों का अभिनन्दन होता है ।

दुख की भाप उठा करती हैसुख के सागर से
ऐसा ही, ऐसा ही शायद जीवन होता है ।

हम-तुम सारे ही जिसमें किरदार निभाते हैं
पल-पल छिन-छिन उस नाटक का मंचन होता है ।

तन की आँखें तो मूरत में पत्थर देखेंगी
मन की आँखों से ईश्वर का दर्शन होता है ।

-कमलेश भट्ट कमल





Sunday, July 23, 2006

कभी सुख का समय बीता

कभी सुख का समय बीता, कभी दुख का समय गुजरा
अभी तक जैसा भी गुजरा मगर अच्छा समय गुजरा !

अभी कल ही तो बचपन था अभी कल ही जवानी थी
कहाँ लगता है इन आँखों से ही इतना समय गुजरा !

बहुत कोशिश भी की, मुट्ठी में पर कितना पकड़ पाए
हमारे सामने होकर ही यूँ सारा समय गुजरा !

झपकना पलकों का आँखों का सोना भी जरूरी है
हमेशा जागती आँखों से ही किसका समय गुजरा !

उन्हीं पेडों पे फिर से आ गए कितने नए पत्ते
उन्हीं से जैसे ही पतझार का रूठा समय गुजरा !

हमें भी उम्र की इस यात्रा के बाद लगता है
न जाने कैसे कामों में यहाँ अपना समय गुजरा !
-कमलेश भट्ट कमल

Monday, July 18, 2005

परिचय




जन्म- 13 फरवरी 1959 ई॰ को सुल्तानपुर(उ॰प्र॰)की कादीपुर तहसील के ज़फरपुर नामक गाँव में।


शिक्षा- एम॰एस-सी॰ (साँख्यिकी)

सृजन- ग़ज़ल, कहानी, हाइकु, साक्षात्कार, निबन्ध, समीक्षा एवं बाल-साहित्य आदि विधाओं में।

कृतियाँ-

* त्रिवेणी एक्सप्रेस (कहानी-संग्रह)

* चिट्ठी आई है (कहानी-संग्रह)

* नखलिस्तान (कहानी-संग्रह)

* सह्याद्रि का संगीत (यात्रा वृतान्त)

* साक्षात्कार (लघुकथा पर डॉ॰ कमल किशोर गोयनका से बातचीत)

* मंगल टीका (बाल कहानियाँ)

* शंख सीपी रेत पानी (ग़ज़ल-संग्रह)

* अजब गजब ( बाल कविताएँ)

* तुर्रम (बाल उपन्यास)

* संस्कृति के पड़ाव

* मैं नदी की सोचता हूँ (गजल संग्रह) -2009

* अमलतास (हाइकु संग्रह) -2009

सम्मान एवं पुरस्कार -

* उ॰प्र॰ हिन्दी संस्थान द्वारा मंगल टीका पर 20 हजार रुपए का नामित पुरस्कार

* उ॰प्र॰ हिन्दी संस्थान द्वारा शंख सीपी रेत पानी पर 20 हजार रुपए का नामित पुरस्कार

* नखलिस्तान के लिए सर्जना पुरस्कार

* परिवेश सम्मान-2000

*आर्य स्मृति साहित्य सम्मान -2005


सम्पादन -

* शब्द साक्षी (लघु कथा संकलन)

* हाइकु - 1989 (हाइकु संकलन)

* हाइकु - 1999 (हाइकु संकलन)

* हाइकु - 2009 (हाइकु संकलन)


सम्प्रति- उ॰प्र॰ के वाणिज्य कर विभाग ज्वाइंट कमिश्नर

सम्पर्क- सी-631, गौड़ होम्स, गोविन्दपुरम, हापुड़ रोड, गाज़ियाबाद- 201002 (उ०प्र०), भारत



दूरभाष- 0120-2765044

मोबा॰- 09968296694

ई-मेल- kmlshbhatt@yahoo.co.in


जालघर-  http://www.gazalkamal.blogspot.com/

Saturday, April 23, 2005

हाइकु

कौन मानेगा
सबसे कठिन है
सरल होना.


 

फूल सी पली
ससुराल में बहू
फूस सी जली.



हज़ार हाथों
वृक्षों ने की दुआएँ
हमने नहीं।


दोनों तय हैं
अँधेरे का छँटना
भोर का होना।


कौन–सी खुशी
उजागर करते
रोज फव्वारे।


दहला गयी
मौन बैठे ताल को
नन्हीं कंकरी।


धूल ढँकेगी
पत्तों की हरीतिमा
कितने दिन।


पल को सही
तोड़ा तो जुगुनू ने
रात का अहं।


हरेक दुखी
दुखियारे जग में
कौन है सुखी।


गगन में ही
कब तक उड़ेंगे
धरा के पंक्षी।


तोड़ देता है
झूठ के पहाड़ को
राई–सा सच।


आते ही आते
तानाशाह सूर्य ने
दिए बुझाए।


मर जाएँगे
हरियाली के साथ
हम सब भी।




















मुश्किलों से

मुश्किलों से जूझता लड़ता रहेगा
आदमी हर हाल में ज़िन्दा रहेगा।

मंज़िलें फिर–फिर पुकारेंगी उसे ही
मंज़िलों की ओर जो बढ़ता रहेगा।

आँधियों का कारवाँ निकले तो निकले
पर दिये का भी सफर चलता रहेगा।

कल भी सब कुछ तो नहीं इतना बुरा था
और कल भी सब नहीं अच्छा रहेगा।

झूठ अपना रंग बदलेगा किसी दिन
सच मगर फिर भी खरा–सच्चा रहेगा।

देखने में झूठ का भी लग रहा है
बोलबाला अन्ततः सच का रहेगा।

–कमलेश भट्ट कमल

आदमी को खुशी

आदमी को खुशी से ज़ुदा देखना
ठीक होता नहीं है बुरा देखना।

पुण्य के लाभ जैसा हमेशा लगे
एक बच्चे को हँसता हुआ देखना।

रोशनी है तो है ज़िन्दगी ये जहाँ
कौन चाहेगा सूरज बुझा देखना।

सर–बुलन्दी की वो कद्र कैसे करे
जिसको भाता हो सर को झुका देखना।

ज़िन्दगी खुशनुमा हो‚ नहीं हो‚ मगर
ख़्वाब जब देखना‚ खुशनुमा देखना।

सारी दुनिया नहीं काम आएगी जब
काम आएगा तब भी खुदा‚ देखना।
***
–कमलेश भट्ट कमल

किसे मालूम

किसे मालूम‚ चेहरे कितने आखिरकार रखता है
सियासतदाँ है वो‚ खुद में कई किरदार रखता है।

किसी भी साँचे में ढल जाएगा अपने ही मतलब से
नहीं उसका कोई आकार‚ हर आकार रखता है।

निहत्था देखने में है‚ बहुत उस्ताद है लेकिन
ज़ेहन में वो हमेशा ढेर सारे वार रखता है।

ज़मीं तक है नहीं पैरों के नीचे और दावा है
वो अपनी मुट्ठियों में बाँधकर संसार रखता है।

बचाने के लिए खुद को‚ डुबो सकता है दुनिया को
वो अपने साथ ही हरदम कई मझधार रखता है।

–कमलेश भट्ट कमल

Monday, April 18, 2005

एक चादर–सी

एक चादर–सी उजालों की तनी होगी
रात जाएगी तो खुलकर रोशनी होगी।

सिर्फ वो साबुत बचेगी ज़लज़लों में भी
जो इमारत सच की ईंटों से बनी होगी।

आज तो केवल अमावस है‚ अँधेरा है
कल इसी छत पर खुली–सी चाँदनी होगी।

जैसे भी हालात हैं हमने बनाये हैं
हमको ही जीने सूरत खोजनी होगी।

बन्द रहता है वो खुद में इस तरह अक्सर
दोस्ती होगी न उससे दुश्मनी होगी।

–कमलेश भट्ट कमल

वृक्ष अपने ज़ख्म

वृक्ष अपने ज़ख्म आखिर किसको दिखलाते
पत्तियों के सिर्फ पतझड़ तक रहे नाते।

उसके हिस्से में बची केवल प्रतीक्षा ही
अब शहर से गाँव को खत भी नहीं आते।

जिनकी फितरत ज़ख़्म देना और खुश होना
किस तरह वे दूसरों के ज़ख़्म सहलाते।

अपनी मुश्किल है तो बस खामोश बैठे हैं
वरना खुद भी दूसरों को खूब समझाते।

खेल का मैदान अब टेलीविज़न पर है
घर से बाहर शाम को बच्चे नहीं जाते।


–कमलेश भट्ट कमल

Thursday, April 14, 2005

पत्थरों का शहर

पत्थरों का शहर‚ पत्थरों की गली
पत्थरों की यहाँ नस्ल फूली फली

आप थे आदमी‚ आप हैं आदमी
बात यह भी बहूत पत्थरों को खली

एक शीशा न बचने दिया जायेगा
गुफ़्तगू रात भर पत्थरों में चली

खिलखिलाते हुए यक ब यक बुझ गई
पत्थरों के ज़रा ज़िक्र पर ही कली

जो कि प्यासे रहे खून के‚ मौत के
एक नदिया उन्हीं पत्थरों में पली

॥कमलेश भट्ट कमल॥

पेड, कटे तो छाँव कटी फिर

पेड, कटे तो छाँव कटी फिर आना छूटा चिड़ियों का
आँगन आँगन रोज, फुदकना गाना छूटा चिड़ियों का

आँख जहाँ तक देख रही है चारों ओर बिछी बारूद
कैसे पाँव धरें धरती पर‚ दाना छूटा चिड़ियों का

कोई कब इल्ज़ाम लगा दे उन पर नफरत बोने का
इस डर से ही मन्दिर मस्जिद जाना छूटा चिड़ियों का

मिट्टी के घर में इक कोना चिड़ियों का भी होता था
अब पत्थर के घर से आबोदाना छूटा चिड़ियों का

टूट चुकी है इन्सानों की हिम्मत कल की आँधी से
लेकिन फिर भी आज न तिनके लाना छूटा चिड़ियों का


॥कमलेश भट्ट कमल॥

समन्दर में उतर जाते हैं

समन्दर में उतर जाते हैं जो हैं तैरने वाले
किनारे पर भी डरते हैं तमाशा देखने वाले

जो खुद को बेच देते हैं बहुत अच्छे हैं वे फिर भी
सियासत में कई हैं मुल्क तक को वेचने वाले

गये थे गाँव से लेकर कई चाहत कई सपने
कई फिक्रें लिये लौटे शहर से लौटने वाले

बुराई सोचना है काम काले दिल के लोगों का
भलाई सोचते ही हैं भलाई सोचने वाले

यकीनन झूठ की बस्ती यहाँ आबाद है लेकिन
बहुत से लोग जिन्दा हैं अभी सच बोलने वाले

॥कमलेश भट्ट कमल॥

समय के साथ भी उसने

समय के साथ भी उसने कभी तेवर नहीं बदला
नदी ने रंग बी बदले‚ मगर सागर नहीं बदला

न जाने कैसे दिल से कोशिशें की प्यार की हमने
अभी तक शब्द "नफरत" का कोई अक्षर नहीं बदला

ज,रूरत से ज़्यादा हो‚ बुरी है कामयाबी भी
कोई विरला ही होगा जो इसे पाकर नहीं बदला

पुराने पत्थरोँ की हो गई पैदा नई फसलें
लहू की प्यास वैसी है‚ कोई पत्थर नहीं बदला

जिसे कुछ कर दिखाना है चले वो वक्त से आगे
किसी ने वक्त को उसके ही सँग चलकर नहीं बदला

॥कमलेश भट्ट कमल॥

Friday, April 08, 2005

टूटते भी हैं

टूटते भी हैं‚ मगर देखे भी जाते हैं
स्वप्न से रिश्ते कहाँ हम तोड़ पाते हैं।

मंज़िलें खुद आज़माती हैं हमें फिर फिर
मंज़िलों को हम भी फिर फिर आज़माते हैं।

चाँद छुप जाता है जब गहरे अँधेरे में
आसमाँ में तब भी तारे झिलमिलाते हैं।

दर्द में तो लोग रोते हैं‚ तड़पते हैं
पर‚ खुशी में वे ही हँसते–मुस्कराते हैं।

ज़िन्दगी है धर्मशाले की तरह‚ इसमें
उम्र की रातें बिताने लोग आते हैं।


-कमलेश भट्ट कमल