Sunday, July 30, 2006

उस पर जाने किस किसका



उस पर जाने किस किसका तो बंधन होता है
अपना मन भी आखिर कब अपना मन होता है ।

तन से मन की सीमा का अनुमान नहीं लगता
तन के भीतर ही मीलों लम्बा मन होता है ।

वह भी क्या जानेगा सागर की गहराई को
जिसका उथले तट पर ही देशाटन होता है ।

अँधियारा क्या घात लगाएगा उस देहरी पर
जिस घर रोज उजालों का अभिनन्दन होता है ।

दुख की भाप उठा करती हैसुख के सागर से
ऐसा ही, ऐसा ही शायद जीवन होता है ।

हम-तुम सारे ही जिसमें किरदार निभाते हैं
पल-पल छिन-छिन उस नाटक का मंचन होता है ।

तन की आँखें तो मूरत में पत्थर देखेंगी
मन की आँखों से ईश्वर का दर्शन होता है ।

-कमलेश भट्ट कमल





Sunday, July 23, 2006

कभी सुख का समय बीता

कभी सुख का समय बीता, कभी दुख का समय गुजरा
अभी तक जैसा भी गुजरा मगर अच्छा समय गुजरा !

अभी कल ही तो बचपन था अभी कल ही जवानी थी
कहाँ लगता है इन आँखों से ही इतना समय गुजरा !

बहुत कोशिश भी की, मुट्ठी में पर कितना पकड़ पाए
हमारे सामने होकर ही यूँ सारा समय गुजरा !

झपकना पलकों का आँखों का सोना भी जरूरी है
हमेशा जागती आँखों से ही किसका समय गुजरा !

उन्हीं पेडों पे फिर से आ गए कितने नए पत्ते
उन्हीं से जैसे ही पतझार का रूठा समय गुजरा !

हमें भी उम्र की इस यात्रा के बाद लगता है
न जाने कैसे कामों में यहाँ अपना समय गुजरा !
-कमलेश भट्ट कमल