टूटते भी हैं‚ मगर देखे भी जाते हैं
स्वप्न से रिश्ते कहाँ हम तोड़ पाते हैं।
मंज़िलें खुद आज़माती हैं हमें फिर फिर
मंज़िलों को हम भी फिर फिर आज़माते हैं।
चाँद छुप जाता है जब गहरे अँधेरे में
आसमाँ में तब भी तारे झिलमिलाते हैं।
दर्द में तो लोग रोते हैं‚ तड़पते हैं
पर‚ खुशी में वे ही हँसते–मुस्कराते हैं।
ज़िन्दगी है धर्मशाले की तरह‚ इसमें
उम्र की रातें बिताने लोग आते हैं।
-कमलेश भट्ट कमल
स्वप्न से रिश्ते कहाँ हम तोड़ पाते हैं।
मंज़िलें खुद आज़माती हैं हमें फिर फिर
मंज़िलों को हम भी फिर फिर आज़माते हैं।
चाँद छुप जाता है जब गहरे अँधेरे में
आसमाँ में तब भी तारे झिलमिलाते हैं।
दर्द में तो लोग रोते हैं‚ तड़पते हैं
पर‚ खुशी में वे ही हँसते–मुस्कराते हैं।
ज़िन्दगी है धर्मशाले की तरह‚ इसमें
उम्र की रातें बिताने लोग आते हैं।
-कमलेश भट्ट कमल
3 comments:
कमलेशजी ,स्वागत है आपका हिन्दी ब्लाग जगत में.मनचाही अभिव्यक्ति के लिये मंगलकामनायें.
हिन्दी ब्लॉग जगत में कमलेश भाई आपका स्वागत् है. ग़ज़ल अच्छी है.
कमलेश भाई आपकी गजल बहुत अच्छी लगी. दुष्यन्त कुमार की परम्परा को आप आगे बढ़ा रहे हैं. अपनी और गजलें भी दें।
शास्त्री नित्यगोपाल कटारे
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